DU ELECTIONS और 2019 लोकसभा चुनाव
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दिल्ली विश्वविद्यालय के तथा इसके विभिन्न महाविद्यालयों के छात्र संघ चुनाव के नतीजे हाल ही में आये है जिनके बारे में अनेक चर्चाएँ, अलग अलग बातें की जा रही है , कोई ABVP को समझा रहा है और कोई NSUI की वापसी पर खुश हो रहा है -
लेकिन मेरी नजर में ये एक सामान्य सा घटनाक्रम है , मेरे अनुसार अगर हम ABVP के हारने या NSUI के जीते जाने के बात करें ,तो ये जीत या हार पार्टी या संगठन के नाम से नही होती |
इसमें अलग अलग कारण निहित होते है , जैसा की आम राजनीतिक परिद्रश्य में होता है वैसा बहुत कुछ इन चुनावो में नही होता है , उदाहरण के तौर पर आप मुद्दों को देख सकते है इन चुनावों में मुद्दों का स्तर सैधांतिक रूप से तो बहुत ही बड़ा होता है किन्तु व्यवहारिक रूप से कोई भी संगठन उनके उपर पूर्ण रूप से विचार करने में असमर्थ ही प्ररित होता है , कमसे कम अब तक तो ऐसा ही हुआ है |
कुछ बातें निम्न है जोकि इन चुनावों उम्मीदवार,मतदाता के संबंध में आम होती है -
-इसमें पार्टी या संगठन नही बल्कि छात्र उम्मीदवार को देख कर वोट दिया जाता है |
-उम्मीदवार का वोट उसके चरित्र, समझ, पर ज्यादा निर्भर नही करता |
-यारी दोस्ती के हिसाब से वोट देने की प्रथा है |
-अधिकांश कॉलेजों में मुद्दे पर चुनाव नही लड़ा जाता |
-छात्रो से जुड़े आधारभूत मुद्दों पर कोई निवारण की बात नही अमल में लाई जाती है |
-पूर्ण रूप से ये कहना संभव नही की ये चुनाव पारदर्शिता से होते है |
- खुलेआम प्रलोभित किया जाता है |
कथित छात्र नेता भी बड़ी बड़ी बातें करते है, भाषण बाजी करते है और ऐसी ऐसी बातों से छात्रो को प्रलोभित करने की कोशिश करते है जोकि इन स्वयम घोषित नेताओं के दायरे में भी नही होती |
मैं अगर अपने कॉलेज की बात करूं तो उसमे गत वर्ष मैंने ऐसे छात्र भी देखे थे जो किसी प्रत्याशी को केवल इसलिए वोट दे रहे थे क्योंकि वो उन्ही के गाँव, कोलोनी या गली का निवासी था | इसी तरह कुछ छात्र तो केवल इसलिए वोट दे रहे थे प्रत्याशी को क्योंकि वो उन्हें आगरा घुमाने ले गया था और साथ ही वे औरो से भी अपील क्र रहे थे , ऐसे ही कुछ CHOCOLATE, फ्रूटी बाटने वाले भी इस लाइन में थे ---
तो क्या आगरा घुमाने वाले वोट पाने का हकदार है ??
यदि आप एक विश्वविद्यालय छात्र की समस्याओं को सुनेंगे तो उन सभी में से किसी का भी इलाज या निवारण इन छात्र नेताओं के पास नही होगा और ना ही जीत जाने के बाद इनकी शक्तियों में निहित होगा , फिर भी माहौल को कुछ इस तरह बनाया जाता है की छात्र चुनाव के पश्चात कैंपस से सारी परेशानी खत्म हो जाएँगी , जबकि होता कुछ भी नही है , शायद ही कोई अपवाद हमे देखने को मिलेगा |
इस चुनाव में मुद्दों का कोई अहम् योगदान नही होता जिसके वजह से इसे लोकसभा या किसी अन्य राज्य चुनाव से जोड़ना कोई समझदारी वाली बात मुझे तो लगती नही , ये चुनाव एक अजीब प्रथा का चलन मात्र है जिसमे की रसूखदार लोग अपने बच्चों को चुनाव में उतारते है और उसके पैसा खर्च करते है , जिससे की उसके लिए आगे राजनीतिक पद, मार्ग, जगह बनाई जा सके |
इन चुनावो का कोई खास महत्व नही रह जाता जब हम इनके दौरान और इनसे पहले होने वाली कुछ अवैध या नियम विरुद्ध घटनाओं पर ध्यान दें :-
(---छात्र नेताओं और उनके समर्थको द्वारा---)
-पोस्टर्स बैनर्स से सारी दिल्ली के सार्वजनिक स्थलों को भर देना |
-सरकारी भवनों, बस स्टैंड्स, अंडरपास , ओवेरब्रिज पर बैनर लगाना |
-बिजली के खम्भों पर बैनर लगाना |
-खुलेआम कॉलेज के छात्रो को प्रलोभित करना |
-लिंगदोह कमिटी के निर्देशों का पालन नही करना |
-राज्य की सम्पत्ति को नुक्सान पहुचना |
-जगह जगह (हर कॉलेज के पास) कूड़ा फैलाना |
-खर्च की तय सीमा से ज्यादा खर्च करना |
(--- प्रबंधन,प्रशासन,सरकार द्वारा की जाने वाली लापरवाही---)
- प्रबंधन द्वारा कोई ठोस कारवाई न करना |
- प्रशासन का जानबूझकर अनजान बने रहना |
- लिंगदोह कमिटी के निर्देशों का पालन करने पे आंशिक रूप से असफल |
- शिकायतों का निवारण सही से ना कर पाना |
- बिना माननीय न्यायालय की दखल के सोये रहना |
मेरी नजर में ये कहने में कोई संकोच नही होना चाहिए कि लोकसभा चुनाव और दिल्ली विश्वविद्यालय चुनाव तुलना करने योग्य नही है , इन दोनों में दिन रात का फर्क है जोकि कैंपस के बाहर का आम आदमी भली भांति जनता है , हालाँकि ABVP की गुंडागर्दी ने एक हद तक संगठन की छवि को काफी नुक्सान जरुर पहुँचाया है |
-अजय कुमार
लेखक खुद - दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र है
उपरोक्त सभी विचार निजी है - Not For Any Legal Purpose
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दिल्ली विश्वविद्यालय के तथा इसके विभिन्न महाविद्यालयों के छात्र संघ चुनाव के नतीजे हाल ही में आये है जिनके बारे में अनेक चर्चाएँ, अलग अलग बातें की जा रही है , कोई ABVP को समझा रहा है और कोई NSUI की वापसी पर खुश हो रहा है -
लेकिन मेरी नजर में ये एक सामान्य सा घटनाक्रम है , मेरे अनुसार अगर हम ABVP के हारने या NSUI के जीते जाने के बात करें ,तो ये जीत या हार पार्टी या संगठन के नाम से नही होती |
इसमें अलग अलग कारण निहित होते है , जैसा की आम राजनीतिक परिद्रश्य में होता है वैसा बहुत कुछ इन चुनावो में नही होता है , उदाहरण के तौर पर आप मुद्दों को देख सकते है इन चुनावों में मुद्दों का स्तर सैधांतिक रूप से तो बहुत ही बड़ा होता है किन्तु व्यवहारिक रूप से कोई भी संगठन उनके उपर पूर्ण रूप से विचार करने में असमर्थ ही प्ररित होता है , कमसे कम अब तक तो ऐसा ही हुआ है |
कुछ बातें निम्न है जोकि इन चुनावों उम्मीदवार,मतदाता के संबंध में आम होती है -
-इसमें पार्टी या संगठन नही बल्कि छात्र उम्मीदवार को देख कर वोट दिया जाता है |
-उम्मीदवार का वोट उसके चरित्र, समझ, पर ज्यादा निर्भर नही करता |
-यारी दोस्ती के हिसाब से वोट देने की प्रथा है |
-अधिकांश कॉलेजों में मुद्दे पर चुनाव नही लड़ा जाता |
-छात्रो से जुड़े आधारभूत मुद्दों पर कोई निवारण की बात नही अमल में लाई जाती है |
-पूर्ण रूप से ये कहना संभव नही की ये चुनाव पारदर्शिता से होते है |
- खुलेआम प्रलोभित किया जाता है |
कथित छात्र नेता भी बड़ी बड़ी बातें करते है, भाषण बाजी करते है और ऐसी ऐसी बातों से छात्रो को प्रलोभित करने की कोशिश करते है जोकि इन स्वयम घोषित नेताओं के दायरे में भी नही होती |
मैं अगर अपने कॉलेज की बात करूं तो उसमे गत वर्ष मैंने ऐसे छात्र भी देखे थे जो किसी प्रत्याशी को केवल इसलिए वोट दे रहे थे क्योंकि वो उन्ही के गाँव, कोलोनी या गली का निवासी था | इसी तरह कुछ छात्र तो केवल इसलिए वोट दे रहे थे प्रत्याशी को क्योंकि वो उन्हें आगरा घुमाने ले गया था और साथ ही वे औरो से भी अपील क्र रहे थे , ऐसे ही कुछ CHOCOLATE, फ्रूटी बाटने वाले भी इस लाइन में थे ---
तो क्या आगरा घुमाने वाले वोट पाने का हकदार है ??
यदि आप एक विश्वविद्यालय छात्र की समस्याओं को सुनेंगे तो उन सभी में से किसी का भी इलाज या निवारण इन छात्र नेताओं के पास नही होगा और ना ही जीत जाने के बाद इनकी शक्तियों में निहित होगा , फिर भी माहौल को कुछ इस तरह बनाया जाता है की छात्र चुनाव के पश्चात कैंपस से सारी परेशानी खत्म हो जाएँगी , जबकि होता कुछ भी नही है , शायद ही कोई अपवाद हमे देखने को मिलेगा |
इस चुनाव में मुद्दों का कोई अहम् योगदान नही होता जिसके वजह से इसे लोकसभा या किसी अन्य राज्य चुनाव से जोड़ना कोई समझदारी वाली बात मुझे तो लगती नही , ये चुनाव एक अजीब प्रथा का चलन मात्र है जिसमे की रसूखदार लोग अपने बच्चों को चुनाव में उतारते है और उसके पैसा खर्च करते है , जिससे की उसके लिए आगे राजनीतिक पद, मार्ग, जगह बनाई जा सके |
इन चुनावो का कोई खास महत्व नही रह जाता जब हम इनके दौरान और इनसे पहले होने वाली कुछ अवैध या नियम विरुद्ध घटनाओं पर ध्यान दें :-
(---छात्र नेताओं और उनके समर्थको द्वारा---)
-पोस्टर्स बैनर्स से सारी दिल्ली के सार्वजनिक स्थलों को भर देना |
-सरकारी भवनों, बस स्टैंड्स, अंडरपास , ओवेरब्रिज पर बैनर लगाना |
-बिजली के खम्भों पर बैनर लगाना |
-खुलेआम कॉलेज के छात्रो को प्रलोभित करना |
-लिंगदोह कमिटी के निर्देशों का पालन नही करना |
-राज्य की सम्पत्ति को नुक्सान पहुचना |
-जगह जगह (हर कॉलेज के पास) कूड़ा फैलाना |
-खर्च की तय सीमा से ज्यादा खर्च करना |
(--- प्रबंधन,प्रशासन,सरकार द्वारा की जाने वाली लापरवाही---)
- प्रबंधन द्वारा कोई ठोस कारवाई न करना |
- प्रशासन का जानबूझकर अनजान बने रहना |
- लिंगदोह कमिटी के निर्देशों का पालन करने पे आंशिक रूप से असफल |
- शिकायतों का निवारण सही से ना कर पाना |
- बिना माननीय न्यायालय की दखल के सोये रहना |
मेरी नजर में ये कहने में कोई संकोच नही होना चाहिए कि लोकसभा चुनाव और दिल्ली विश्वविद्यालय चुनाव तुलना करने योग्य नही है , इन दोनों में दिन रात का फर्क है जोकि कैंपस के बाहर का आम आदमी भली भांति जनता है , हालाँकि ABVP की गुंडागर्दी ने एक हद तक संगठन की छवि को काफी नुक्सान जरुर पहुँचाया है |
-अजय कुमार
लेखक खुद - दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र है
उपरोक्त सभी विचार निजी है - Not For Any Legal Purpose
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